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जीवन नाथ दर: प्रधान जी

 

 'प्रधान जी' शब्द के पर्याय थे श्री जीवन नाथ दर।'नेतरहाट विद्यालय' के जीवन नाथ थे श्री जीवन नाथ दर।मैंने 'थे' लिखा है, क्योंकि जीवन के शुरुआत के लिए यही क्रिया उपयुक्त होती है।श्री जीवन नाथ दर स्वयं एक संस्था थे, यदि यह कहूँ कि वे स्वयं एक विद्यालय थे जहाँ के आशीर्वाद प्राप्त छात्र तो छात्र शिक्षकगण आज भी उनके प्रति कृतज्ञ, श्रद्धालु एवं नतमस्तक हैं। नेतरहाट विद्यालय के प्रधानाध्यापक बनने के बाद उन्होंने जिस शिक्षक का चयन पहली बार बिहार लोक सेवा आयोग, में किया था, वह मैं ही था और वे गर्व से कहा करते थे,'रमन' में मैंने एक शिक्षक पाया है।मुझे उन्होंने पुत्रवत् माना यद्यपि वो मेरे सखा भी थे, सहकर्मी भी थे, साथ ही मेरे नेतरहाट जीवन के प्रथम वर्षों के संरक्षक भी थे।उन्होंने, मुझे विद्यालय के अनेक क्षेत्रों में उत्प्रेरित किया-एनसीसी , तीरंदाजी, पाक्षिक-मासिक विद्यालय पत्रिका, मुद्रणालय और सांस्कृतिक कार्यक्रम। हिन्दी सीखने की ललक मैंने जैसी उनमें उस अवस्था में पायी, अन्यत्र नहीं मिली, अंग्रेजी बोलने की आदत मैंने उनसे पायी, कितने अभ्यासी थे; छात्रों में घुल-घुलमिल जाने तथा उनसे संस्था को आगे बढाने की लालसा भी मुझे उनसे ही मिली।अतः वे सर्वतोमुखी प्रतिभा के उजागर थे, पक्षधर थे।भूगोल पढाने में उनकी विशेष रुचि थी और संयोग से मैं भी थोडी रुचि रखता था, मेरा मुल्यांकन हिन्दी विषय के शिक्षक के साथ साथ भूगोल में भी उस दिन करवा दिया जिस दिन बिहार सरकार से पूरे विद्यालय का शैक्षिक मूल्यांकन श्री रामायण सिंह के द्वारा किया गया।

लोक गीतों के धनी, लोक जीवन के पक्षधर, लोकप्रिय श्री दर नेतरहाट की धरती पर एक शिक्षक, एक प्रधानाध्यापक, एक पदाधिकारी तो थे ही , छात्रों के जीवन निर्माता, शिक्षकों के आदर्श निर्देशक, कर्मचरियों के प्रिय पदाधिकारी सम्पूर्ण नेतरहाट के वासियों के कंठहार थे।इंसानियत के अनुपम उदाहरण , रुपये-पैसे से लेकर सर्वस्व समर्पित करने वाले वे नेतरहाट के त्रय स्तम्भ, शिक्षक, शिष्य और कर्मचारी गण के सखा, दार्शनिक और पथ-पथप्रदर्शक थे सुख दुःख के साथी , सबके जीवन में रच-बस जाने वाले वे दर-दर के 'दर' थे, हर दर 'दर' तक पहुँच सकता था, हर दर के धनी, तभी उनके छात्र दर-दर नहीं भटके।

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अग्रणी, खेल के मैदान पर नवयुवक खिलाडी एवं परमोत्साही , शिक्षा के क्षेत्र में दूरान्वित दृष्टि के कर्मठ योगी एक साथ गंगा-यमुना-सरस्वती सदृश शिक्षा शिक्षक और शिक्षण की त्रिवेणी थे।कभी शिक्षक पहले थे, कभी पदाधिकारी पहले थे, कभी मानव पहले थे, कभी जननायक पहले थे, कभी आदिवासी पहले थे, कभी बिहारी पहले थे तो कभी भारतवासी पहले थे। विलक्षण थे, नेतरहाट विद्यालय के लिये शुभलक्षण थे, बिहार की शिक्षा के सीता के लक्ष्मण थे, शेषनाथ थे। तभी नेतरहाट के वन में जबतक यह लक्ष्मण रहा, नहीं सीता का हरण हुआ।

मैं उन दिनों की बात नहीं करता जब श्री सीता का हरण हो चुका है, जब श्री राम स्वयं सीता की खोज में भटक रहे हैं और लक्ष्मण राम-रावण (शिक्षा-अशिक्षा) में अचेतावस्था में है।तभी आज हनुमान, जाम्बंत जैसे कतिपय मूर्धन्य आदर्श एवं श्री जीवन नाथ के वरद पुत्र 'सीता' को पुनः श्री राम से मिलाने के प्रयत्न में प्रयत्नशील हैं। नेतरहाट की कथा सत्यदेव से शुरू होती है, कथावाचक श्री जीवन नाथ दर रहे, फिर तो कथाओं का सिलसिला जारी हो गया और यही कारण है कि आज उनके समय के समस्त छात्रगण एक एक कर कथा बन गए हैं, कथा जो कथनीय है, कथा जो पठनीय है, कथा जो जीवन की हैं, जीवननाथ की हैं, शिक्षक- शिष्य की है, पिता-पुत्र की है, राज्य की नहीं है, राष्ट्र की है, और अब तो संपूर्ण संसार में है।अब छात्र कथावाचक हैं, कथा जीवन नाथ की है, कथा जो समाप्त नहीं हो सकती, कथा जो अघाती नहीं, जो बनाती है, मिटाती नहीं, कथा जो बरसती है तो बरसती रहती है, कथा जो छलछलाती है आँखों में आनंद के आँसू तो कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में यही दुहराती है:

"आभार माथा नत करे दाओ,

हे तोमर चरण धूलार तले"

                                                  - डॉ लाला राधारमण सिन्हा 'रईस'

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