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चलो चलें गाँव की ओर

अब से कुछ वर्ष की बात है। हमारे पूज्य प्रधान जी श्री जीवन नाथ दर जी एवं प्रधान माता जी राँची आये हुए थे।श्री संतोष छौछरिया के निवास स्थान पर प्रधान जी के सम्मानार्थ नोबा की एक गोष्ठी आयोजित की गई थी।जब दर साहब के आशीर्वचन के रूप में कुछ कहने को कहा गया तो वे उठ खडे हुए और पहला वाक्य, जो उन्होंने कहा, वह था-"चलो चले गाँव की ओर।" कुछ अटपटा सा लगा था उस समय।परंतु धीरे- धीरे उन्होंने जब इस वाक्य का मर्म समझाया , तो मुझे काफी सार्थक लगा और उसी दिन से मैंने सोच रखा था कि नोबा को भी गांव में ले चलना होगा।

नोबा चिकित्सा शिविर, जिसकी शुरुआत 29 सितंबर, 1991 में डाॅ मिथिलेश कांति, पूर्व प्राचार्य, की अध्यक्षता में हुई थी, में मैं इस विषय में एक प्रस्ताव लाया था कि नोबा को सामाजिक कार्यों में भी रुचि लेनी चाहिए।अबतक की नोबा की बैठक मात्र औपचारिकता होती थी।मेरा प्रस्ताव था कि नोबा गांव के लोगों के लिए कुछ करे। उसके तहत प्रारंभ में नोबा नगर के इर्द-गिर्द के गांवों को ही लिया जाए।इससे ग्रामीणों में हमारे प्रस्तावित नगर के प्रति अच्छी भावना पनपेगी। इसके तहत चिकित्सा शिविर लगाना, प्रौढ-शिक्षा, गांवों की सफाई, मद्य निषेध, महिला मंडल की स्थापना आदि योजना रखी गई।इस पर अगली बैठक में भी चर्चा हुई और अंततः यह निर्णय लिया गया कि आरंभ में केवल चिकित्सा शिविर ही लगाया जाए।इस कार्य को मूर्त रूप देने के लिए श्री अजित कुमार सिंहा, संप्रति इंजीनियर आकाशवाणी, रांची एवं श्री जयशंकर चौधरी, संप्रति नेता आईपीएफ को चुना गया। उन पर स्थान चयन तथा शिविर संचालन की व्यवस्था का जिम्मा दिया गया।पहला शिविर रांची के पिस्का मोड से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित हेहल पहाडी टोला में लगाया गया।मैं और डाॅ प्रभात कुमार सिंहा , संप्रति फिजिशियन सदर अस्पताल, रांची वहाँ पहुँच गगये।पहले से ही जयशंकर चौधरी वहाँ ग्रामीण श्री बिरसा मुखिया के साथ सारी व्यवस्था कर चुके थे।हमलोगों ने करकरी206 मरीजों का इलाज किया तथा दवाईयां वितरण की।प्रथम शिविर में ही इतने मरीजों के आने से तथा ग्रामीणों के उत्साह से हमें काफी प्रेरणा मिली।यह शिविर कई मामलों में काफी रोचक था।पहाडी टोला रांची शहर से इतना सटा होने पर भी बहुत पिछडा है।वहां तक कोई सडक नहीं है।हमें पगडंडियों से होते हुए वहाँ पहुँचना पडा।अधिकांश रोगी खून की कमी (एनीमिया) से पीडित थे।जिसका कारण पेट में कीडा होना है और वे कीडे खुले मैदान में शौच करने तथा नंगे पाँव चलने से शरीर में प्रवेश कर जाता है।

 

यह सारा कृत्य मैं प्रधान जी की प्रेरणा से ही कर पाया। आज भी जब मैं बैठ कर सोचता हूँ तो लगता है प्रधान जी का यह नारा-" चलो चलें गांव की ओर", कितनी दूरदर्शिता से भरा था। ऐसे दिव्य आत्मा को शत शत नमन है मेरा।

-डॉ अंबिका दत्त शर्मा

© 2015 Ex-Navayugian's Association

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